Sobhna tiwari

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परिणीता भाग :- २

                 Parineeta   भाग :- २


ललिता ने संकुचित होकर धीरे से अपनी लाचारी जताते हुए, संकोच के स्वर में कहा – चारु के कहने....

''चारु के कहने से? क्या कहने से?'' कहते हुए शेखर ने एक बार सिर उठाकर ललिता की ओर देखा। फिर कहा- एक दम कपड़े-लत्ते से लैस होकर आई हो- अच्छा, जाओ।

लेकिन ललिता नहीं गई--वहीं चुपचाप खड़ी ही रही।

चारुबाला का घर ललिता के घर के पास ही है। चारु उसकी बहनेली है। दोनों हमजोली हैं। चारु के चरवाले ब्रह्मसमाजी हैं। इस गिरीन्द्र के अलावा चारु के घर के सभी आदमी शेखर के परिचित हैं। 5-7 साल हुए, गिरीन्द्र कुछ दिन के लिए एक बार यहाँ आया था। अब तक वह बाँकीपुर में पढ़ता था- कलकत्ते आने का न प्रयोजन ही हुआ, और न वह आया ही। इसी कारण शेखर उसे जानता-पहचानता न था।

ललिता को फिर भी खड़े देखकर- ''बेकार क्यों खड़ी हो, जाओ'' कहकर शेखर ने फिर किताब खोल, ली, और पढ़ना शुरू कर दिया।

पाँच मिनट के लगभग चुप रहने के बाद ललिता ने फिर धीरे से पूछा- जाऊँ?

''जाने ही को तो कह चुका हूँ ललिता।''

शेखर का रँग-ढँग देखकर ललिता के मन से थियेटर देखने का उत्साह उड़ गया, लेकिन बात ऐसी थी कि गये बिना भी न बनता था।

तय यह हुआ था कि आधा खर्च चारु का मामा देगा, और आधा ललिता देगी।

चारु के घर में सब लोग उसी की अपेक्षा कर रहे होंगे- देर होने के कारण ऊब रहे होंगे। जितनी देर हो रही है, उतनी ही उन लोगों की बेचैनी बढ़ रही है- यह दृश्य कल्पना के द्वारा ललिता की आँखों के आगे नाचने लगा। किन्तु बचने का कोई उपाय भी उसे नहीं सूझ पड़ता था। और भी 2-3 मिनट तक चुप रहने के बाद फिर उसने कहा- बस, सिर्फ आज ही के दिन जाना चाहती हूँ- जाऊँ?

शेखर ने किताब को एक तरफ फेंक दिया, और धमकाकर कहा- दिक् मत करो ललिता, जाने की इच्छा हो तो जाओ। अब अपना भला-बुरा समझने लायक हो चुकी हो।

सुनते ही ललिता चौंक उठी। ललिता को अक्सर शेखर झिड़कता, डांटता और धमकाता था। आज कुछ पहला ही मौका न था। सुनने और सहने का अभ्यास अवश्य था, लेकिन इधर दो तीन साल से ऐसी कड़ी झिड़की या झड़प झेलने की नौबत नहीं आई थी। उधर साथी सब राह देख रहे हैं, इधर वह खुद भी पहन-ओढ़कर तैयार खड़ी है। सिर्फ रुपये लेने के लिए आना ही आफत हो गया! अब उन सब साथियों से जाकर वह क्या कहेगी?

कहीं जाने-आने के लिए ललिता को आज तक शेखर की ओर से पूरी स्वतन्त्रता प्राप्त थी, वह कभी रोक-टोक नहीं करता था। इसी धारणा के बल पर वह आज भी एकदम सज-धजकर शेखर के पास केबल रुपये भर लेने आई थी।

इस समय उसकी वह स्वाधीनता ही केवल ऐसे रूढ़ भाव सें खर्च नहीं हो गई, बल्कि जिस लिए स्वाधीनता कुण्ठित हुई वह कारण कितनी बड़ी लज्जा की बात है, यह आज अपनी इस तेरह वर्ष की अवस्था में पहली ही बार अनुभव करके वह भीतर ही भीतर जैसे कटी जा रही थी। अभिमान से आँखों में आँसू भरकर वह और भी पाँच मिनट के लगभग खड़ी रही। इसके बाद अपने घर जाकर ललिता ने दासी के जरिए अन्नाकाली को बुलवाकर उसके हाथ में दस रुपये देकर कहा- काली, आज तुम सब जाकर देख आओ। मेरी तबियत बहुत खराब हो गई है; चारु से जाकर कह दे, मैं आज न जा सकूँगी।

अन्नाकाली ने पूछा- कैसी तबियत है? क्या हुआ?

ललिता ने कहा- सिर में दर्द है, जी मतला रहा है, तबियत बहुत ही खराब हो रही है।

इतना कहकर वह करवट बदलकर लेट रही। इसके बाद चारु ने आकर बड़ी खुशामद की, जोर-जबरदस्ती भी की, मामी से सिफारिश कराई, किन्तु किसी तरह ललिता को उठ कर चलने के लिए राजी न कर पायी। अन्नाकाली दस रुपये पा गई थी, इसलिए वह जाने को चटपटा रही थी। कहीं इस गड़बड़ मेँ पड़कर जाना न हो सके, इस भय से उसने चारु को आड़ में ले जाकर रुपये दिखाकर कहा- दीदी की तबियत अच्छी नहीं है, वे न जायँगी तो क्या हर्ज है चारु दीदी? उन्होंने मुझे रुपये दे दिये हैं- यह देखो। आओ, हम लोग चलें।

चारु ने समझ लिया, अन्नाकाली अवस्था में छोटी है तो क्या हुआ, बुद्धि उसमें किसी से कम नहीं है। वह राजी हो गई, और अन्नाकाली को लेकर चली गई।

3

चारुबाला की माँ मनोरमा को ताश खेलने का बड़ा शौक था। मगर मुश्किल यही थी कि खेलने का शौक जितना था, उतनी निपुणता न थी। मगर ललिता उनकी इस कमी को दूर कर देती थी। वह खेलने में बहुत निपुण थी। मनोरमा का ममेरा भाई गिरीन्द्र जबसे आया था तबसे, इधर कई दिन से, दोपहर भर लगातार ताश का खेल होता था। गिरीन्द्र एक तो मर्द था, उस पर खेलता भी अच्छा था। अतएव उसके मुकाबले में बैठकर खेलने के लिए मनोरमा को ललिता की अनिवार्य आवश्यकता होती थी।

नाटक देखने जाने के दूसरे दिन ललिता को ठीक समय पर उपस्थित न देखकर मनोरमा ने बुला लाने के लिए अपनी दासी भेजी। उस समय ललिता बैठी हुई एक मोटी सी सादी कापी में किसी अँगरेज्री-पुस्तक का बँगला में तर्जुमा लिख रही थी- नहीं गई।

ललिता की सहेली चारु भी आकर कुछ न कर पाई। तब मनोरमा ने खुद जाकर पोथी-कापी आदि सब झड़ाके से उधर फेंकते हुए कहा- ले, उठ, चल जल्दी। परीक्षा पास करके तुझे जजी नहीं करनी होगी-बल्कि ताश ही खेलने पड़ेंगे- चल।

ललिता असमंजस में पड़ गई। रुआसी सी होकर उसने अपनी असमर्थता जताई। कहा-आज किसी तरह जाना न होगा, कल आने का पक्का वादा रहा। मगर मनोरमा ने एक न सुनी। अन्त को यह हुआ कि मामी से कहकर जबरदस्ती: हाथ पकड़कर उठाया, तब लाचार होकर ललिता गई। नियमानुसार आज भी ललिता को गिरीन्द्र के विपक्ष में बैठकर ताश खेलना पड़ा। लेकिन आज खेल नहीं जमा। वह किसी तरह उधर मन न लगा सकी। ललिता खेलते समय आदि से अन्त तक उदास और उचाट बनी रही और दिन ढलने के पहले ही उठ खड़ी हुई। जाते समय गिरीन्द्र ने कहा- आपने कल रात को रुपये तो भेज दिये, मगर गईं नहीं। चलिए, कल फिर चलें।

ललिता ने सिर हिलाकर धीमे स्वर में कहा- नहीं-मेरी तबियत बहुत ही खराब हो गई थी।

गिरीन्द्र ने हँस कर कहा- मगर अब तो आपकी तबियत ठीक है न? मैं कल फिर चलने के लिए कहता हूँ- चलिए न; नहीं जी, कल आपको चलना ही पड़ेगा।

''ना, ना, कल तो मुझे छुट्टी ही न होगी!'' यह कह कर ललिता तेजी से चली गई।

यह बात न थी कि केवल शेखर के डर से ही ललिता का मन आज खेल में नहीं लग पाया; नहीं, उसे खुद भी आज गिरीन्द्र के मुकाबले में खेलते बड़ी लज्जा लग रही थी।

शेखर के ही घर की तरह इस घर में- चारु के यहाँ- भी ललिता लड़कपन से ही आती-जाती रहती है, और अपने घर के लोगों के आगे जैसे निकलती पैठती है, वैसे ही इस घर के मदों के सामने भी। इसी कारण चारु के मामा से भी उसने कुछ पर्दा नहीं किया- शुरू से ही बोलने-चालने में वह नहीं हिचकी। किन्तु आज गिरीन्द्र के आगे बैठकर जब तक वह खेलती रही न जाने कैसे उसको यही जान पड़ा कि इसी अल्प परिचय से, इतने ही दिनों के भीतर, गिरीन्द्र उसे कुछ विशेष प्रीति की नजर से देखने लगा है। आज से पहले उसने कभी इसकी कल्पना भी नहीं की थी कि पुरुषों की प्रीति-पूर्ण दृष्टि इतनी लज्जा की सृष्टि कर सकती है।

अपने घर में एक झलक दिखाकर ही ललिता शेखर के घर में हो रही। सीधे शेखर के कमरे में घुसकर लगे हाथ अपने काम में जुट गई। छुटपन से ही इस घर के छोटे-मोटे साधारण सफाई के काम ललिता कर दिया करती है। शेखर की किताबों को कायदे से सँभालना और रखना, मेज का सारा सामान सजाना, दावात-कलम वगैरह सफा करना वगैरह सब काम ललिता ही करती थी। उसके सिवा इधर ध्यान देनेवाला दूसरा कोई न था। इधर 6-7 दिन हाथ न लगाने के कारण काम बहुत बढ़ गया था। शेखर के आने से पहले ही सब काम करके चले जाने का इरादा करके ललिता काम में जुट गई।

ललिता भुवनेश्वरी को मां कहती थी, मौका मिलने पर उन्हीं के आसपास बनी रहती थी, और चूंकि वह खुद किसी को गैर नहीं समझती थी, इसीलिए उसे भी कोई गैर नहीं समझता था। आठ बरस की थी, जब मां-बाप के मर जाने पर उसे मामा के घर पर आना पड़ा था। तभी से वह छोटी बहन की तरह. शेखर के ही आसपास रहकर, उसी से पढ़- लिखकर, आज इतनी बड़ी हुई है। यह सभी को मालूम है कि ललिता पर शेखर का विशेष स्नेह है, लेकिन वह स्नेह रंग बदलते-बदलते इस समय कहाँ से कहों पहुँच गया है, इसकी खबर किसी को न थी, ललिता को भी नहीं। सभी लोग ललिता को बचपन से ही शेखर के निकट एक सरीखा असीम आदर और प्यार-दुलार पाते देखते आ रहे हैं, और आजतक उसमें कुछ भी किसी को बेजा नहीं जान पड़ा, अथवा यह कहो कि ललिता के सम्बन्ध में शेखर की कोई भी हरकत ऐसी नहीं हो पाई कि उस पर विशेष रूप से किसी की दृष्टि आकृष्ट होती। मगर फिर भी, कभी, किसी दिन किसी ने इसकी कल्पना तक नहीं की कि यह लड़की इस घर की बहू बनकर इस घर में स्थान पा सकती है। यह खयाल न ललिता के घर में किसी का था, और न भुवनेश्वरी ही का।

ललिता ने सोच रक्खा था कि काम खतम कर के शेखर के आने से पहले ही वह चली जायगी, लेकिन अनमनी होने के कारण घड़ी पर नजर नहीं पड़ी, देर हो गई। अचानक दरवाजे के बाहर जूतों की चरमराहट सुनकर सिर उठाकर ही सिटपिटाई हुई ललिता एक किनारे हटकर खड़ी हो गई।

शेखर ने भीतर घुसते ही कहा- अच्छा, तुम हो! कल कितनी रात बीते लौटीं? ललिता ने कुछ जवाब नहीं दिया।

शेखर ने एक गद्दीदार आरामकुर्सी पर हाथ-पैर फैलाकर लेटे-लेटे वही सवाल दोहराया। कहा - लौटना कब हुआ था- दो बजे? तीन बजे? मुँह से बोल क्यों नहीं निकलता? ललिता फिर भी उसी तरह चुपचाप खड़ी रही।

शेखर ने खिजलाकर कहा- नीचे जाओ, मां बुला रही हैं। भुवनेश्वरी भण्डारे की कोठरी के सामने बैठी जलपान का सामान रकाबी में रख रही थीं। ललिता ने पास आकर पूछा-- मुझे बुला रही थीं मां?

''कहाँ, मैंने तो नहीं बुलाया!'' कहकर सिर उठाकर ललिता का मुख देखते ही उन्होंने कहा- तेरा चेहरा ऐसा सूखा हुआ क्यों है ललिता? जान पड़ता है, आज अभी तक तूने कुछ खाया-पिया नहीं-क्यों न?

ललिता ले गरदन हिलाई।

भुवनेश्वरी बोलीं- अच्छा, जा अपने दादा को जलपान का सामान देकर जल्दी मेरे पास आ।

ललिता ने दम भर बाद मिठाई की रकाबी और जल का गिलास लिये हुए ऊपर आकर कमरे में देरवा, शेखर अभी तक उसी तरह आखें मूँदे लेटा हुआ है। दफ्तर के कपड़े भी नहीं उतारे। न हाथ और मुँह ही धोया। पास आकर धीरे से उसने कहा-- जल-पान का सामान लाई हूँ।

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